बाज़ार

मशगूल हैं सब दौलत कमाने में
अब और क्या उम्मीद करें ज़माने से
मुखालफत होती है जहां लोगों से
छोड़ देते हैं उन्हें इसी बहाने से

मुसीबत होती है कभी जब बाजार में
भाग आते हैं अपने महफूज तहखाने में
भूल नहीं पाती है नजर सुबह को
मिट जाते हैं बस खुद को जगाने में

न राह मुश्किल है न मंजिल
बस निकल नहीं पाते घर के मैखाने से
होते हैं शौक लोगों को क्या गुस्ताखी के
मुड़ कर मुस्कुराने या मुस्कुरा के मुड़ जाने के

हम भी अपने आप को कहते हैं भला-बुरा
क्या मुश्किल है मुस्कुरा के चुप हो जाने में?
बहुत ख़ुशी है अपनी बेअदबगी की
बदज़बानो से भी अपना ज़िक्र पाने में

क्या मिलेगा मुझे इस तहज़ीब से?
जब खता तो खुद है ज़माने में
अब बेबाक फुगाँ भी नहीं निकलती
तारीफ तो है बस चुप-चाप मर जाने में

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