आज के कलियुग में जहाँ
पाप-व्यभिचार सदा-सद पलता है
इस शहर-उस शहर, हर नगर, हर देश से
हंसते-मुस्कराते, हाथ हिलाते, सिर उठा निकलता है।
राह चलते हुए राहगीरों को वह पकड़ता है
हर किसी के मन को वह अंततः जकड़ता है
और गलत राह पर ले जा कर वह अकड़ता है
(जो मन मे एक बार पाप को बसा लेता है तो उसे निकलना मुश्किल हो जाता है। पाप यहां मन में बैठ कर यह बता रहा है कि वह क्या है)
कहता है, “मैं हूं यहां, इस देश और विदेश में,
मैं ही वासना, मैं ही चिंता , मैं ही कुंठा, मैं ही मन के द्वेष में,
घूमता हूँ मैं यहां सब मानवों के वेश में!
और पार नहीं पा सकते हो तुम मुझसे या मेरे किसी भी नाम से,
नहीं निकल सकते फिर मेरे किसी काम के अंजाम से
घर कर लेता हूँ फिर मैं उस पवित्र आत्मा के रूप पे,
नहीं जा सकते हो तुम फिर ऊपर कहीं इस धाम से!
छोड़ूँगा तो नहीं मैं तुमको अपने किसी खयाल से,
और मुक्त नहीं होने दूंगा मैं तुमको माया के इस जाल से!
मैं खड़ा हूँ राह पर तुम्हारे बनकर एक आसान रास्ता,
हाथ थामोगे तो उठा दूंगा तुम्हारी सच्चाई पर से आस्था!
और तुम नहीं राम कि मुझको तुम मार सकोगे,
न ही तुम हो कृष्ण, न्याय की राह तुम पहचान सकोगे!
न तुम अर्जुन, न तुम भीष्म, न तुम धर्मराज हो,
न तुम लक्ष्मण, न तुम भरत, न रघुवंश तुम आज हो!
कहाँ पर भागोगे जब तुम्हारे मन को मैं हथियूंगा?
कितना पुण्य कर पाओगे जब हर ओर से घिर आऊंगा?
मैं ही था वो जिसने सदियों पहले मंदिरों को जलवाया था,
मैं ही था जिसने नालंदा और तक्षिला को मिटाया था,
मैं ही था वो जिसने मुगलों से खूनी खेल खिलवाया था,
वह भी मैं ही था जिसने चित्तोड़ दुर्ग में माताओं को आग में धकेला था,
और जालियांवाला के खूनी खेल का भी मैं कारण अकेला था!
फिर भी अचंभित होकर डरता हूँ खत्म हो जाऊंगा,
एक उम्मीद की छोटी किरण से भी जलकर भस्म हो जाऊंगा!”
