सब चुप क्यों हैं?

(कल्पना करिए आप 12-15 वर्ष पहले के भारत में हैं। जैसे जैसे मैं समय में आगे बढूंगा आप समझते जाएंगे)

रोज़ाना चलते जीवन के यापन में,

सब चुप क्यों हैं?

अंतर्द्वंद के स्थापन से भी,

सब चुप क्यों हैं?

 

सर उठा कर देखते हैं जब लोग,

पता लगता है कि रास्ते तो अब खाली है।

खुली आंख से देखते दुनिया को,

संसार की हालत भी निराली है।

आकाश में लोभ के पंछी दिखाई पड़ते हैं,

अपनों के परिवेश में पराये दिखाई पड़ते हैं,

चहुँ ओर स्वार्थ की धुंध का विस्तार है,

मंदिरों की जगह मैखाने दिखाई पड़ते हैं।

सत्य के वाक्यों में बहाने दिखाई पड़ते हैं,

झूठ की हवा भी क्या चली है,

मित्रों में अब अनजाने दिखाई पड़ते हैं।

कौन कहे सत्य और निष्ठा के लक्षण सुप्त क्यों हैं।

जानते हुए भी न जाने सब चुप क्यों हैं?

 

भारतवर्ष के भीतर भी दुश्मन हैं,

द्वेष और क्रोध से भरे ये जाते हैं,

क्षति पहुंचती है जब देश को,

मुख खोल ये गधे-सा मुस्कुराते हैं।

राष्ट्रहित की बात जब होती है,

झूठ फैला ये दंगे भड़काते हैं,

आतंकियों के मरने पर ये,

काली पट्टी बांध संसद में आते हैं,

जी भर के ये आंसू बहाते हैं,

और वर्षों तक बिरयानी उन्हें खिलाते हैं,

AFSPA और TADA जैसे कानून भी हटाते हैं।

तब, आतंकी इतने मुक्त क्यों थे?

ये देख उस समय सब चुप क्यों थे?

 

जब बढ़ा था अंधकार बहुत,

सरकार में आया था अहंकार बहुत,

जनता ने बाहुबल दिखाया था,

लोकतंत्र को सार्थक करवाया था।

उद्दंडता की जब पराकाष्ठा थी,

वंशवाद से मुक्ति की आकांक्षा थी,

विधान-पटल पर सर्द शीत छाई थी,

सरकार जब वामपंथ की अनुयायी थी,

भूमि आतंकित हो दहलाई थी,

पूरे देश की बात तो छोड़िए,

सिर्फ मुम्बई ही कई हमलों से थर्राई थी।

सेना को ज्यादातर निष्क्रियता के आदेश क्यों थे?

नेतृत्व करने वाले तब चुप क्यों थे?

 

संसार का यही नियम है मित्र,

बदलाव ही केवल स्थिरता है मित्र,

वर्षों की विचारधारा से जब अति हो जाती है,

उन्नति की राह में वह अनुपयुक्त हो जाती है।

बदलाव से वही लोग तो डरते हैं,

लूटपाट के स्थापित साधन जिनके हाथ से फिसलते हैं।

विकास के लिए बस इतनी बात ही काफी है,

सिर्फ सौ अपराध की माफी है,

नेतृत्व कोई भी हो –

जब सत्ता शिशुपाल बन जाएगी,

जनता से माफी नहीं वह पाएगी,

द्वेष में दुर्व्यवहार बढ़ेगा जिसका,

सुदर्शन से सर कटेगा उसका।

 

देखें, देखें असत्य के लिए वे कितनी आवाज़ उठाएंगे,

देखें उनके चेले कितनी गोली चलाएंगे,

देखें वे कब तक रक्षकों का लहू बहा पाएंगे,

देखें वे कितने जनों को गुमराह कर पाएंगे,

देखें अपने ढकोसलों से कब तक – “आज़ादी” के नारे लगाएंगे,

देखें वे कब तक पत्थर उठाएंगे,

देखें वे कब तक बसों को जलाएंगे,

देखें वे कितनी पुलिस चौकियों में आग लगाएंगे,

देखें भले लोग भी, आखिर कब तक शांति का पाठ पढ़ाएंगे,

देखें हम सब भी आखिर, कब तक चुप रह पाएंगे।

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